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IMG 20240318 140445 पर्यटन: कौन थी बणी ठणी ? विश्व विख्यात पेटिंग का यह है रहस्य, आज भी लोकप्रिय Bikaner Local News Portal पर्यटन
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Thar पोस्ट। राजस्थान की यह धरा अपनी वीरता, भक्ति, शक्ति सौंदर्य प्रेम आदि के लिए विख्यात है। देश विदेश की अनेक होटलों हवेलियों में आपका ध्यान एक चित्र अपनी और खींच ही लेता है। इस चित्र का आखिर क्या रहस्य है ? देशी- विदेशी पर्यटक भी इस सदी पुराने चित्र को गौर से निहारते रह जाते है। एक प्रेम कथा कैसे चित्र में समा गई? राजस्थान का शहर किशनगढ़ अपनी अनूठी चित्रकला के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। किशनगढ़ की चित्रकला में प्रेम और कृष्ण भक्ति को बेहद खूबसूरत तरीके से कूंचीबद्ध किया गया है और इसका श्रेय जाता है राजा सावंत सिंह को, जिन्होंने 1748 से 1757 तक किशनगढ़ रियासत पर शासन किया। इस दौरान सौंदर्य और प्रेम का भी एक अध्याय साथ-साथ चल रहा था। ‘बणी ठणी’ (सजी संवरी) या ‘बनी ठनी’ या बानी-ढाणी के नाम से प्रसिद्ध, राजमहल की एक बेहद खूबसूरत कवयित्री और गायिका से राजा सावंत सिंह का अटूट प्रेम था। सावंत सिंह, राजा राज सिंह के कनिष्ठ पुत्र थे। कला में उनकी विशेष रुचि थी और भगवान कृष्ण में बेहद आस्था थी। बनी ठनी’ 18 वीं शताब्दी के मध्य में किशनगढ़ राज्य की राज कवयित्री और गायिका होती थीं। कला प्रेमी राजकुमार सावंत सिंह, बनी ठनी की कविताओं और संगीत के साथ उनकी सुंदरता पर भी मुग्ध थे। राजकुमार सावंत सिंह स्वयं भी शृंगार और भक्ति रस के अच्छे कवि थे। उन्होंने अपनी कला के बल पर बनी ठनी के दिल में जगह बना ली थी। कला और संगीत के लिए उनकी पारस्परिक प्रशंसा एक दूसरे के प्रति प्रेम में बदल गई। इस दौरान चित्रकार निहालचंद ने अपनी उत्कृष्ट कला के माध्यम से, बनी ठनी और सावंत सिंह के चित्र बनाकर राधा-कृष्ण के भव्य स्वरूप को अमर कर दिया और राजा सावंत सिंह के संरक्षण में किशनगढ़, कला-संस्कृति के केंद्र के रूप में स्थापित हो गया।

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Bani thani and king sanwant singh

राजा सावंत सिंह ने 9 वर्षों तक किशनगढ़ पर शासन किया, लेकिन 1757 में गृह कलह से उनका मन बेहद दुखी हो गया और उन्हें राज्य का शासन भार सा लगने लगा। कृष्ण भक्त राजा के विरक्त हो जाने के फलस्वरूप ब्रजवास करने की उनकी इच्छा प्रबल हो उठी। उन्होंने राज सिंहासन और राजमहल के साथ-साथ सावंत सिंह नाम का भी परित्याग कर दिया और बैरागी परंपराओं के अनुसार नागरी दास नाम धारण करके वृंदावन चले गए। कृष्ण भक्ति और शृंगार रस पर उनके लिखे हुए पद पहले ही ब्रज मंडल में काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। अत: ब्रज वासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया।

नागरी दास ने कुल 75 रचनाएं की हैं और 73 रचनाओं का संग्रह नागरसमुच्चय के नाम से छपा। इनकी रचनाओं के तीन भाग हैं : वैराग्य सागर, शृंगार सागर और पद सागर। नागरी दास ने प्रेम, भक्ति और वैराग्य पर अनेक रचनाएं की हैं। उन्होंने त्योहारों, ऋतुओं और कृष्ण लीलाओं का भी बेहद सुंदर चित्रण किया है। कहा जाता है कि शृंगार और प्रेम पर नागरी दास से बेहतर किसी ने नहीं लिखा। नागरी दास ने यद्यपि ब्रज भाषा में लिखा है।

वल्लभाचार्य संप्रदाय के अष्टछाप कवियों तथा स्वामी हरिदास के शिष्य भक्त कवियों के ललित पदों से नागरी दास के पद बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। बनी ठनी भी रसिक बिहारी के नाम से कविता लिखती थी। आगे चलकर इन्हें प्रिया व नागर रमणी नाम भी मिले। बनी ठनी की कविताएं भी नागरिक दास के साहित्य में ही छपी हैं।

जब राजा सावंत सिंह ने नागरी दास बनकर वृंदावन की बैरागी कुटिया के लिए प्रस्थान किया तो केवल बनी ठनी ही उनके साथ वृंदावन गई। नागरी दास ने अपना बाकी जीवन वृंदावन की बैरागी कुटिया में ही बनी ठनी के साथ रहकर कृष्ण भक्ति को समर्पित कर दिया। वर्ष 1764 में नागरी दास ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया और उनके बिना बनी ठनी भी कुछ महीने ही जीवित रह पाई। लेकिन बनी ठनी की सुंदरता और नागरी दास से उनका प्रेम आज भी अनूठी चित्रकला के रूप में अमर है। बनी ठनी का चित्र अजमेर संग्रहालय और पेरिस के अल्बर्ट हॉल में सुरक्षित है। इसकी प्रतिकृति महलों, किलों, होटल हवेलियों में आज भी चार चांद लगा रही है।


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