Thar पोस्ट न्यूज। बीकानेर परकोटे में हाल ही में एक मेले का आयोजन हुआ। कहने को यह बहुत ही सामान्य मेला था। लेकिन मेले का इतिहास जानकर आप भी हैरान रह जाओगे। दरअसल, यह मेला आज से 50 साल पहले की कष्टदायक सामाजिक जीवन का प्रतीक है। इसकी शुरुआत भी कुछ रोचक ढंग से हुई थी। पुराने बीकानेर में यह वह दौर था जब घरों के अंदर टॉयलेट नहीं हुआ करते थे। घरों में टॉयलेट रखना अच्छा नही माना जाता था।
चुनींदा घरों में ही व्यवस्था थी जो रसूखदार माने जाते थे। वर्तमान पीढ़ी को यह बात कुछ अचंभित कर सकती है लेकिन यही सच्चाई थी। आज के दौर में हमने अक्षय कुमार अभिनीत ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ में ऐसे दृश्य देखा हो जिसमें महिलाएं अलसुबह अंधेरे में हाथ मे लालटेन लिए समूह में निकलती है। पुराने बीकानेर में भी यह रोजमर्रा का जीवन था। महिलाएं समूह में होती व रास्ते मे हथाई भी जमकर करती थी। दूसरों के घरों की बातें मिर्च मसाले लगाकर करती थी। कुछ महिलाएं मंजन भी साथ रखती थी। परिवार व पड़ोस में दुश्मनों को किसे कैसे पटखनी देनी है इसकी भी प्लानिंग कर लेती थी। कभी कभी सगाई आदि की बातें भी हो जाती थी। तब देश के आर्थिक हालात कमजोर थे लेकिन महिलाएं मजबूत थी। हालात कैसे भी क्यों न हो मुकाबला कर लेती थी, आज की महिलाओं की तरह बीमारू नहीं थी। मोबाइल व टीवी का युग नहीं था। दादी नानी बन चुकी महिलाओं की पुरानी यादों में आज भी यह मेला है। पर्यटन से जुड़े कलाकार अनिल आचार्य अन्नाकटी ने इसका जिक्र अपनी फेसबुक वॉल पर हाल ही में किया है। यहां लगता है मेला, इसलिए पड़ा नाम:
बीकानेर परकोटे के अशोक मारू ने इसके जिक्र में बताया कि यह मेला अमावस्या के बाद पँचमी को लगता है, इसका नाम ठुँठा मेला इसलिये पड़ा, कि पहले पुराने शहर की उस्ता बारी के पास से रोशनीघर की तरफ से आगे तक एक स्थान था जिसे बडा बाड़ा बोलते थे। और यह बाड़ा ऐतिहासिक परकोटे की चार दिवारी से सटा हुआ था, बड़ा बाड़ा केवल महिलाओ के शौच जाने का स्थान था, आज से 50 वर्ष पुर्व शौच की व्यवस्था घर से बाहर ही थी।
मेला पँचमी को लगता था। हर घर की औरत मेला देखने के लिये शौच का बहाना बनाकर हाथ मे पानी से भरा हुआ बर्तन लौटा ठूँठा आदि लेकर आती थी। मेले का आनन्द लेती तो चारो तरफ जिधर देखो हर औरत के हाथ मे एक ठुँठा होता था। इस पर हमारे पुराने बुर्जुगों ने कहा यह तो अब श्रावण पँचमी का मेला नही इसका नाम तो ठुँठा मेला ही रख देना चाहिये।
इस प्रकार इसका नाम ठूँठा मेला पड़ गया, हालांकि हाल ही में यह मेला तो भरा लेकिन ठूँठा लिए महिलाएं नहीं थी। वरिष्ठ वॉलीबाल खिलाड़ी समाजसेवी जेठमल व्यास जिक्र करने पर बताते है कि 50 साल पहले सामाजिक व्यवस्था अलग थी परकोटे से बाहर वीराना था। जबकि परकोटे में लोग आपस मे मिल जुलकर रहते थे। संसधान बहुत कम थे। अनेक व्यवस्थाएं मजबूरीवश भी थी इसमे यह भी व्यवस्था थी।