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IMG 20211105 100006 पुष्करणा सावा : राजपरिवार ही नहीं पुष्करणा समाज भी जैसलमेर में नहीं करता था शादियां, यह थी प्रमुख वजह ? Bikaner Local News Portal बीकानेर अपडेट
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Thar पोस्ट, विशेष

बीकानेर रियासत काल से पुष्करणा सावा चला आ रहा है । ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर महाराजा सूरसिंह के समय से यह सावा परम्परा चली आ रही है । बीकानेर रियासत में दरबार प्रमुख सेना,दीवानगिरी, मुंसिफखाना, हाउसहोल्ड और शाही दरबार के विभिन्न सेवादार पदों पर पुष्करणा जाति के लोग सेवा करते थे। राजसेवा में व्यस्तताओं के चलते विवाह करने का अवसर ना मिलने से पुष्करणा लड़के और लड़कियों का वांछित आयु में विवाह ना होने के कारण पुष्करणा समाज के अनुरोध पर रियासत द्वारा एक निश्चय समय में विवाह करने की अनुमति और सात साल के अंतराल में विवाह करने की आज्ञा के बाद सामूहिक सावा निकालने की रीति प्रारंभ हुई । सावे की इस परंपरा के पीछे महाराजा सूरसिंह का सन 1616 में ली गई इस प्रतिज्ञा से भी है कि उन्होंने अपने भतीजी के लड़के भीम सिंह की भाटियों द्वारा हत्या के बाद यह प्रतिज्ञा ली कि अब जैसलमेर रियासत में बीकानेर की किसी भी राजकुमारी का विवाह नही किया जायेगा। इसी प्रतिज्ञा को पुष्करणा ब्राह्मणों ने भी लिया। उस समय पुष्करणा जातियों के अधिकांश विवाह सम्बन्ध जैसलमेर में ही होते थे। लेकिन फलौदी वालों के साथ विवाह होते रहे। साथ ही हिन्दू विवाह सम्बन्धी निषेध के कारण अपनी जाति में विवाह के साथ बाहर विवाह यानी अपने गोत्र ,गांव से बाहर विवाह करने के नियम के कारण बीकानेर रियासत के शहर में ही विवाह नहीं कर पा रहे थे। ।इन सभी समस्याओं के हल के लिए सामूहिक सावा निकाल कर रियासत की आज्ञानुसार एक ही दिन अपने शहर में अपनी की जाति के विभिन्न गोत्रों में विवाह करने की रीति प्रारंभ हुई। आज भी सावे दिन कोई भी वर शहर के बाहर बारात ले कर नही जाता। वधू पक्ष वाले शहर में आकर ही अपनी लड़कियों की शादी करते है । इस तरह पुष्करणा सावा परंपरा का निर्वहन 400 सालों से निरंतर चल रहा है। पहले सात साल फिर 1961 के बाद 4साल से होने लगा और 2005 से दो साल के बाद होने लगे।सम्बन्धियों की, रिश्तेदारी की जो मधुरता और अपनत्व इस सावे में नजर आता है वह कहीं और नजर नहीं आता। पुष्करणा समाज में कुंकु ओर पुंपु में शादी हो जाती है । एक धामे बर्तन में जीमण हो जाता है । लड़की की विदाई पर ना कोई दहेज ना कोई लड़के के परिजनों को कुछ देने की कोई प्रथा। सिर्फ लड़के को सोने की चेन घड़ी और बरातियों को साधारण भोजन से ही विवाह सम्पन्न हो जाता है । यह आज के युग में आपको अजीब लग सकता है मगर यह सच है और सावे में आज भी यही होता है । गली मोहल्ले या चौक के पांडाल में  ही विवाह सम्पन्न हो जाता है।

यद्यपि आज कतिपय सम्पन्न पुष्करणा बंधु आधुनिक रितियों और दिखावे की ओर बढ़ रहे हैं। वे प्रायः सावे पर विवाह करने से बचते है। यह सावा सिर्फ पुष्करणा समाज का नही है। इसमें वर-वधू पुष्करणा होते हैं मगर बाराती सभी जातियों के होते हैं। जब शहर का पूरा परकोटा एक छत बन जाता है तो शहर के सभी घरों में हलचल होती है सभी जातियों की औरतें एकत्रित होकर विवाह के शगुन निभाती हैं।

माहेश्वरी अग्रवाल वैश्य जातियां और सम्पन्न परिवार गरीब परिवारों की बेटियों के विवाह का खर्चा उठा लेते हैं । यहां तक कि कन्यादान भी वे करते रहे हैं। कहीं औरतें कन्यावला व्रत रखती हैं । अपनी श्रद्धा से मुंह दिखाई के रूप में लड़कियों को भेंट देकर अपना व्रत पूरा करती हैं। जजमानी जाति के लोग पूर्ण श्रद्धा से अपना कर्म करते आज शहर का हर सम्पन्न व्यक्ति इस सावे में अपना सहयोग देता है ।विवाह के बाद बरी ,जान ,जुआ टिका , गृह प्रवेश, थाली उठाने फिर गोद लेने और दादा ससुर की गोथली में से वधू का रुपये निकालने की प्रथा ,जात ओर देवली ,कुआं पूजा जैसे अनेकों लोकरीतियों को पूरा करने के बाद विवाह सम्पन्न होता है । और वर वधू को समागम का अधिकार मिलता है । यह सावा सिर्फ वर-वधू का मिलन नही बल्कि समाज की निरन्तरता के लिए परिवारों सम्बन्धियों ओर लोकरीतियों का मिलन और सामाजिककरण की प्रकिया का महत्वपूर्ण चरण या पड़ाव है ।पुरुषार्थ को पाने और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का संस्कार है। मगर चिंतनीय है कि आज शिक्षा और आधुनिकता के चक्कर में सावे की यह मौलिकता धीरे धीरे खो रही है। (राजेन्द्र जोशी)


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