Thar पोस्ट, राजस्थान/ बीकानेर/जैसलमेर। जैसलमर में बहुतायत में मिलने वाले पीले पत्थर पर नक्काशी का कार्य देखने वालों का मन हर लेते हैं। जैसलमेर की हवेलियों, मकानों पर कार्य बेमिसाल है। इन पत्थरों से बने मकान हवेलियां सूर्य की रोशनी में दमक उठते हैं। इसीलिए जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाता है। जैसलमेर में स्थानीय भाषा मे लोग इन पत्थरों को केसरबाटी भी बोलते हैं। इन पत्थरों के निर्माण में सदियों पुराने वातावरण बदलाव का भी असर है। दरअसल सदियों पहले पश्चिम राजस्थान में टेथिस महासागर था। इस महासागर में जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर आदि जिले आते थे। पीली मिट्टी और जीवाश्म जब अंदर दबे रहे तो वे पत्थरों में तब्दील हो गए। यही पीला पत्थर अब जैसलमेर को दुनिया मे खास पहचान दिलवा रहा है। जैसलमेर का पत्थर अन्य राज्यों में भी निर्यात होता है। इस पत्थर में लौह तत्व, जिलेटिन और लवणों की मात्रा अधिक होती है। जैसलमेर में कुछ गांवों में फॉसिल्स पत्थर भी निकलता है जो कि लकड़ी की तरह दिखाई देता है। जैसलमेर का वातावरण अधिक शुष्क है, हवा की भी अधिकता है। वायु प्रदूषण कम है। इसके चलते वहाँ पत्थरों में वर्षों बाद भी चमक रहती है। बीकानेर में अनेक स्थानों पर जैसलमेरी पत्थरों से मकान और मंदिरों का निर्माण हुआ है। लेकिन धीरे धीरे इन निर्माणों की चमक दमक कमजोर पड़ गई। बीकानेर का वातावरण जैसलमेर की तुलना में अलग है। यहां का वातावरण अर्ध शुष्क, कुछ नमीयुक्त है। नहर आने के बाद नमी बढ़ी है। बीकानेर के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर की मात्रा अधिक है। सल्फर और अन्य तत्व हमेशा पत्थरों में मौजूद तत्वों से रासायनिक क्रिया कर उनकी आभा को कमजोर करते है। यहाँ बता दें कि सूरसागर झील के कारण यहां पास में संगमरमर से बनी महाराजा डूंगरसिंह की प्रतिमा पीली पड़ गई थी, जिसका बाद में रासायनिक उपचार करवाया गया। बाद में सूरसागर की साफ करवाया गया। यहां अम्लीय वातावरण में चांदी के आभूषण भी काले पड़ जाया करते थे। यहां एक रोचक तथ्य यह भी है कि बीकानेर में लाल गुलाबी दुलमेरा के पत्थरों का इस्तेमाल नक्काशी के कार्यों के लिए होता है। जो कि प्रदूषण और सल्फर के सम्पर्क में आने से और निखरते है। यही वजह है कि बीकानेर की हवेलियां सैंकड़ों वर्षों बाद भी जीवंत लगती है।