Tp न्यूज़, बीकानेर ।राजस्थानी भाषा का अतीत बहुत ही प्रभावशाली और गौरवशाली रहा है । भारतीय महाकाव्य परम्परा की बात करें तो राजस्थानी में आदिकाल से ही यह परम्परा विद्यमान रही है जो आधुनिक काल में भी अबाध गति से चल रही है । ये विचार राजस्थानी के प्रसिद्ध साहित्यकार बुलाकी शर्मा ने साहित्य अकादमी द्वारा मणिपुर के मोइरांग इम्फाल में आयोजित ‘महाकाव्य परम्परा और समकालीन भारतीय साहित्य’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में रविवार की व्यक्त किये ।
उन्होंने कहा कि चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो ‘ से हिंदी महाकाव्य परम्परा का आरम्भ माना जाता है जबकि वह मूलतः राजस्थानी का महाकाव्य है ।बुलाकी शर्मा ने राजस्थानी महाकाव्य परम्परा में रामकथा आख्यान के अवदान को रेखांकित करते हुए कहा कि गोस्वामी तुलसीदास की ‘ रामचरित मानस’ के सृजन से 58 वर्ष पूर्व मेहो जी गोदारा ने राजस्थानी रामायण की रचना की जिसमें हमें ऐसा लगता है जैसे भगवान श्री राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास मरूभूमि में ही व्यतीत किया हो ।उन्होंने कहा कि राजस्थानी में महाकाव्य लेखन की गति मंद अवश्य है किंतु यह परम्परा आधुनिक काल तक चली आ रही है । लोकदेवता रामदेव जी, भाईचारे का संदेश देने वाले आध्यात्मिक गुरु गोविंद सिंह, वृक्षों की रक्षा के लिए शहीद होने वाली वीरांगना अमृतादेवी सदृश्य प्रेरक महानायकों पर लिखे राजस्थानी महाकाव्य मनुष्य की प्रगति के मार्ग में मील के पत्थर बन कर समकालीन समय में भी प्रासंगिक हैं ।
इस दो दिवसीय सेमिनार में साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने कहा कि विश्व महाकाव्य परम्परा में भारतीय महाकाव्य परम्परा का अविस्मरणीय अवदान रहा है । उन्होंने कहा कि भारतीय की सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में महाकाव्य की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा रही है । भारतीय भाषाओं के महाकाव्यों पर गम्भीर विमर्श हेतु अकादमी ने यह राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया है ।
मणिपुरी भाषा के संयोजक एन. किरण कुमार सिंह ने इस सेमिनार को मणिपुरी साहित्य और संस्कृति के लिए उपलब्धिमूल्क बताया ।
सेमिनार का उद्घाटन प्रसिद्ध रंगकर्मी, नाटककार पद्मश्री रतन थियाम ने किया ।
इस सेमिनार में राजस्थानी, पंजाबी, अंग्रेजी, बंगाली, गुजराती, तेलुगु, संस्कृत, मणिपुरी, बोड़ो, मराठी, कन्नड़, उर्दू, नेपाली, उड़िया आदि भारतीय भाषाओं में महाकाव्य परम्परा पर देश के विभिन्न शहरों से आये विद्वानों ने गम्भीर विमर्श किया ।