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अब हर विधा का मूल स्वर व्यंग्य  : डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी

Tp न्यूज़, बीकानेर। सतत साहित्यिक संस्था द्वारा सतत ऑनलाइन राष्ट्रीय व्यंग्य-विमर्श का आयोजन किया गया। ‘व्यंग्य ही क्यों ?’ विषय पर देश के जाने-माने व्यंग्यकारों ने अपनी बात रखी। इस चर्चा को आरम्भ करते हुए वरिष्ठ आलोचक और संचालक डॉ रमेश तिवारी ने व्यंग्य की भूमिका और इस विषय की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज जिस अनुपात में व्यंग्य लिखे जा रहे हैं वह हमें हर्षित तो करता है किन्तु जब हम गुणवत्ता की दृष्टि से विचार करते हैं तो हमें उत्साहजनक परिणाम नहीं मिलते हैं ।चर्चा की शुरुआत में युवा व्यंग्यकार अनूप मणि त्रिपाठी ने कहा कि व्यंग्य बाज की तरह होता है जो विसंगतियों पर नजर रखता है और उन्हें चुन-चुन कर पाठक के समक्ष रखता है, उन्हें आगाह करता है। उन्होंने कहा कि व्यंग्य वह टूल है जिससे हम उस चीज को दिखा सकते हैं जो अन्य विधाएं नहीं दिखा पाती हैं। मेरी दृष्टि में व्यंग्य इसीलिए आज की जरूरत है ।
           वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मधु आचार्य आशावादी ने कहा कि आज के दौर में व्यंग्य बहुत जरूरी है। आज संवेदना का संकट है और सत्ता ने संवेदना को मार दिया है। ऐसे में व्यंग्य की बहुत जरूरत है। उन्होंने कहा कि सत्ता का मूल चरित्र ही व्यक्ति के शोषण पर टिका होता है। चाहे किसी तरह की भी सत्ता हो, साहित्य हर सत्ता का स्थाई विपक्ष होता है। व्यंग्य सदैव पीड़ित जन के पक्ष में और सत्ता की अमानवीयता से टकराव के कारण जन्म लेता है । मुझे यह देखकर बहुत हैरानी होती है कि आज कुछ तथाकथित व्यंग्यकार लेखकीय-धर्म का निर्वहन न करते हुए किसानों और उनके जनांदोलनों के खिलाफ लिखकर उसे व्यंग्य सिद्ध करना चाहते हैं । यह स्थिति बेहद चिंताजनक है व्यंग्य का धर्म यह नहीं है  ।

         परसाई की नगरी जबलपुर के वरिष्ठ व्यंग्यकार रमेश सैनी ने कहा कि व्यंग्य सीधे-सीधे समाज और पाठक के अंतर्तम को प्रभावित करता है। व्यंग्य का स्वर जो पूर्वजों ने दिया है, उस स्वर से भटक रहा है। मूल फॉर्मेट से हम भटक रहे हैं। नए लोगों में सामाजिक सरोकारों, मानवीय सरोकारों का अभाव है। उन्होंने कहा कि व्यंग्य में वह शक्ति होती है कि वह सत्ता और समाज से सवाल करता है पर वह उत्तर नहीं देता है । यह उसका काम भी नहीं है ।वरिष्ठ व्यंग्यकार  और  संपादक डॉ. प्रेम

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जनमेजय ने कहा कि व्यंग्य जैसे हथियार का इस्तेमाल वंचितों पर कभी नहीं होता।  आज अस्मिता पर छिपकर हमले हो रहे हैं। आज मानवीय संवेदना बाजार की वस्तु की तरह हो गई है, ऐसे में व्यंग्य जरूरी है। उन्होंने कहा कि आज चुनौतियों से मुठभेड़ करने का समय है। कोरोना काल में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लोग संघर्ष करते दिखे। उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि आज व्यंग्यकारों के अंदर का संपादक गायब हो गया है, यह चिंता की बात है। इससे लेखन में निरंकुशता आ रही है । साथ-साथ उन्होंने रचना को महत्त्वपूर्ण बताते हुए यह भी कहा कि विधा नहीं, रचना श्रेष्ठ होती है।
      वरिष्ठ व्यंग्यकार पद्मश्री डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि कविता, गजल में भी प्रतिरोध के स्वर बहुत लंबे समय से चल रहे हैं। कविता प्रतिरोध में खड़ी होती रही है। अब हर विधा का मूल स्वर व्यंग्य हो गया है। उन्होंने कहा कि व्यंग्य तो शाश्वत विपक्ष है। सत्ता का खेल जैसा पहले था वैसा ही आज भी है।  व्यंग्यकार को बाजार को पहचानना होगा । बाजार के हाथ में सत्ता है। उन्होंने चिंता प्रकट करते हुए कहा कि  आज छद्म व्यंग्यकार आ गए हैं और वे अपना बाजार बना रहे हैं। ऐसे में सच्चा व्यंग्य और सच्चा व्यंग्यकार खोजना बहुत कठिन हो गया है ।   

       वरिष्ठ व्यंग्यकार शशिकांत सिंह शशि ने व्यंग्य लेखन के प्रति गहरी चिंता प्रकट करते हुए कहा कि आज हम एक चक्रव्यूह में घिर गए हैं और हमें निकलना नहीं आता। ऐसे में हथियार में धार लगाने की जरूरत है और व्यंग्य ही वह मजबूत हथियार है। उन्होंने कहा कि आज किसान, जनता, लेखक, पाठक हम सब बाजार से घिरे हैं। बाज़ार के इस ताने-बाने से हमें क्योंकि आज सब कुछ बाजार तय कर रहा है।  आज सबसे गहन अंधेरा है। इस अंधेरे समय में लिखना जरूरी है।  ऐसे समय में व्यंग्य और व्यंग्यकार की भूमिका और महत्ता दोनों बढ़ जाती है और इसलिए आज लिखना और बोलना बेहद जरूरी है।  ।

       इससे पूर्व चर्चा आरंभ करते हुए वरिष्ठ व्यंग्य आलोचक रमेश तिवारी ने कहा कि जिनको पढ़कर हमने व्यंग्य का ककहरा सीखा वे आज हमारे बीच हैं और निश्चित रूप से विषय पर एक बेहतरीन चर्चा होगी। उन्होंने सत्र का विधिवत संचालन किया। संचालन में सहयोग किया युवा कवि और व्यंग्यकार रणविजय राव ने।
    अतिथियों का स्वागत सतत संस्था के अध्यक्ष वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार बलदेव त्रिपाठी ने किया।
       धन्यवाद ज्ञापन वरिष्ठ नाटककार, कवि, कहानीकार और संस्था के संरक्षक  प्रताप सहगल ने किया। उन्होंने कहा कि विधाओं से प्रतिस्पर्धा करने की जरूरत नहीं है। सबसे बड़ी बात कि लेखक की दृष्टि क्या है ? अगर दृष्टि नहीं है तो चाहे कोई भी विधा हो, लिखना व्यर्थ है। इस ऑनलाइन व्यंग्य-विमर्श कार्यक्रम में राजशेखर चौबे, बुलाकी शर्मा, जयप्रकाश पांडेय, अरुण अर्णव खरे, सुनील जैन राही, सुनीता शानू सहित देश के कई प्रबुद्ध साहित्यकार – व्यंग्यकार श्रोता के रूप में उपस्थित थे।


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