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ScreenShot2020 08 19at5.45.42PM 4 श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी की दृष्टि में भारतीय कला': व्याख्यानमाला आयोजित Bikaner Local News Portal बीकानेर अपडेट, राजस्थान
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Tp न्यूज। अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ द्वारा श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी  जन्म शताब्दी समारोह व्याख्यानमाला की श्रृंखला में आभासी पटल पर आज एक विशेष व्याख्यान ‘श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी की दृष्टि में भारतीय कला’ विषय पर आयोजित किया गया। जिसमें मुख्य वक्ता प्रो. रजनीश शुक्ला, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र रहे। संपूर्ण भारत में भारतीय दृष्टि रखने वाले राष्ट्र साधक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर वर्धा से स्वरांजलि प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में विभिन्न विषयों के भारतीयकरण करने का काम ठेंगड़ी जी ने किया। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का एकीकरण करने वाले, कामगार, शिल्पकार, कौशल युक्त श्रमिक जिनके उत्पादन व वितरण से समाज चलता है, कि दृष्टि रखने वाले ठेंगड़ीजी ही थे। देश हित, समाज हित और श्रमिक हित तीनों को सामने रखकर कोई मजदूर संगठन है ऐसा ठेंगड़ी जी के अलावा किसी ने नहीं सोचा था। स्वदेशी आंदोलन के महान नेतृत्व करता, सामाजिक मतभेद व  सामाजिक विषमता को दूर करने में पर्यावरण संरक्षण हेतु आंदोलन के संरक्षक के रूप में ठेंगड़ी जी का नाम जाना जाता है।
उन्होंने कहा कि भारतीय कला का जागरण मनुष्य की चेतना में होता है। आनंद कुमार स्वामी की पुस्तक ‘ स्वदेशी इन आर्ट’ पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हिंदू जीवन दृष्टि ही सबसे उत्तम है, कला के माध्यम से स्वदेशी, स्वावलंबन, सुचिता, मूल्य बोध और धर्म की स्थापना की जा सकती है।  ठेंगड़ी जी के शब्दों में कला संस्कृति का अलंकार है और संस्कृति कला का अधिष्ठान है। संस्कृति तो वही है जो अलंकरण से युक्त है। संस्कृति के बोध में कला का होना बहुत जरूरी है। श्रेष्ठ मनुष्य की निर्मिती का दर्शन ही भारत की सनातन परंपरा है। भारतीय दृष्टि में मनुष्य को साहित्य, संगीत और कला से युक्त होने पर समग्र रूप से देखती है।
हिंदू कला दृष्टि को समझने के लिए हिंदू जीवन दृष्टि को गहराई से समझना होगा। कला मनुष्य के आदर्शों के प्रस्फुटन का साधन रहा है। ठेंगड़ीजी द्वारा संस्कार भारती की स्थापना के समय वैचारिक संकल्पना तैयार की गई।कला मनुष्य की चेतना व आदर्श का सृजन है। भारतीय संस्कृति के उदात्त स्वरूप को भारत की कला से जोड़ते हुए कहा कि भौगोलिक विभाजन के बाद भी सांस्कृतिक रूप से समग्रता रही है। श्री गुरुजी के उपन्यास ‘ओउम् राष्ट्राय स्वाहा:’ पर प्रकाश डाला। कला की अभिव्यक्ति से स्वांताय सुखाय की बात कही। भारतीय कला दृष्टि लोकरंजन व निरव्यैक्तिक रूप से आनंदित करने वाली रही है। कलाओं द्वारा मनुष्य की निर्मिती में बड़ी भूमिका को अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया। उपभोग व त्याग जब दोनों समंजित होते हैं तो कलात्मक जीवन होता है। मनुष्य की इच्छा, क्रिया और प्रयत्न में एकात्मता आए तब अद्वैत के बोध की जीवन प्रणाली का निर्माण होता है। मनुष्यता के निर्माण में कलाओं का कैसे उपयोग हो सकता है ऐसा विचार करने वाले ऋषि के रूप में ठेंगड़ी जी का नाम आता है।
इस अवसर पर अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के माननीय अध्यक्ष प्रो. जगदीश प्रसाद सिंघल, महामंत्री शिवानंद सिंदनकेरा,  संगठन मंत्री महेंद्र कपूर सहित महासंघ के पदाधिकारियों एवं देश के कोने कोने से शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, गणमान्य व्यक्तियों, कला प्रेमियों एवं मीडियाकर्मियों ने भाग लिया। कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण ABRSM BHARAT भी किया गया।


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