Thar पोस्ट, न्यूज। बीकानेर को भोजन प्रेमियों का शहर भी कहा जाता है। यहां चार यार आपसी चर्चा में कचौरी का जिक्र ना करे यह हो ही नही सकता। बीकानेर में एक कहावत यह भी प्रचलित हुई है कि ”यदि पास में पड़ा हो कांसा तो फिर हम क्यों जाये नासा ” लेकिन बात यहां केवल कचौरी की। कचौरी एक मसालेदार गहरा तला हुआ व्यंजन है। बीकानेर में अब अमूमन हर इलाके में कचौरी की दुकान है‚ यहां दिनभर कचौरी बिकती है। बीकानेर में जस्सूसर गेट के अंदर से लेकर चाय पट्टी, कोटगेट, स्टेशन रोड, केईएम रोड, कचहरी हॉस्पिटल सहित अनेक इलाक़ों में कचौरी बिकती है। दरअसल कचौरी ऐसा स्वादिष्ट व्यंजन है जो कि भारतीय उपमहाद्वीप से उत्पन्न हुआ‚ जिसे भारतीय प्रवासीयों व सूरीनाम ‚ त्रिनिदाद, टोबैगो और गुयाना ( जैसे दक्षिण एशिया के कई हिस्सों में भी खाया जाता है। कचौरी की उत्पत्ति भारत के हिंदी पट्टी क्षेत्र में हुई थी। इसे आमतौर पर पीली मूंग दाल या उड़द की दाल‚ बेसन‚ काली मिर्च‚ लाल मिर्च पाउडर‚ नमक और अन्य मसालों के पके हुए मिश्रण से भरे हुए आटे से बनी एक गोल चपटी गेंद के आकार में बनाया जाता है। बीकानेर की कचौरी को अब ना केवल कोलकाता, दिल्ली व मुम्बई बल्कि भारत से बाहर भी भेजा जाता है। यहां शुष्क वातावरण में तैयार कचौरी का स्वाद व महक लाजवाब है। कचौरी का भारत में इतिहास खासा पुराना है अर्धकथानाक” जीवनी के लेखक बनारसीदास ने भी 1613 में‚ इंदौर में कचौड़ी खरीदने का उल्लेख किया था। पुरानी दिल्ली और राजस्थान के कोटा की सड़कों पर भी समोसे के आने से काफी पहले‚ विभाजन के बाद कचौरी परोसी जाती थी। कचौरियों को व्यापारियों के नाश्ते के रूप में जाना जाता है। लेकिन मारवाड़ी लोगों ने इसे दुनिया के सामने पेश किया। यह व्यापारी समुदाय इसे पूरे देश में ले गया क्योंकि उन्होंने व्यापार और वाणिज्य के लिए भारत की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा की। यह उस दौर की बात है जब स्ट्रीट फूड आमतौर पर बाजारों के आसपास विकसित होते थे ताकि व्यापारी व्यवसाय करते समय अपना पेट भर सकें। प्राचीन काल में व्यापार मार्ग राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से होकर गुजरते थे। मुख्य रूप से शाकाहारी होने के कारण‚ वे स्थानीय रूप से उपलब्ध किसी भी भोजन के साथ अपने मसालों को मिला देते थे। प्राचीन ज्ञान के अनुसार‚ ठंडा करने वाले मसाले जैसे; धनिया और सौंफ‚ तथा हल्दी की स्टफिंग कचौरियों में डाले जाते थे‚ ताकि रेगिस्तान की भीषण गर्मी के बावजूद इस लजीज नाश्ते को खाया जा सके। यह कहा जाता है कि मारवाड़ का दिल वहीं है जहां कचौरियों का जन्म हुआ था। मारवाड़ी ही इस आकर्षक भारतीय स्ट्रीट फूड के प्रवर्तक रहे हैं‚ लेकिन समय के साथ‚ मूल कचौरी ने अपना आकार बार-बार बदला है और विभिन्न स्वादों और सामग्रियों के साथ इसे फिर से परिभाषित किया गया। राजस्थान‚ मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में “प्याज की कचौरी” भी बनाई जाती है‚ यह ऐसी सामग्रीयों से बनाई जाती है जो मौसम पर निर्भर नहीं होती है। प्याज को पूरे सालभर के लिए स्टोर किया जा सकता है‚ और कचौरी में इस्तेमाल होने वाले आलू की थोड़ी सी मात्रा भी पूरे साल अच्छी रहती है। इस कचौरी की फिलिंग कटे हुए प्याज से बनी होती है‚ जिसे बहुत सारे भारतीय मसालों के साथ मिश्रित किया जाता है। आम तौर पर इसे इमली की मीठी चटनी के साथ परोसा जाता है। एक अन्य संस्करण में सभी कचौरियों का राजा “राज कचोरी”‚ एक तरह से कचौरी का सबसे लोकप्रिय संस्करण बन गया है‚ जिसे चाट की श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया गया है‚ शायद गोल गप्पे की तरह इसके फूले हुए अकार के कारण। खास बात यह है कि राज कचौरी की उत्पत्ति बीकानेर में हुई और अब यह देश के हर हिस्से में पाई जाती है। इसे चटनी‚ दही और अनार के बीज के साथ गार्निश करके परोसा जाता है। दिल्ली संस्करण में इसे “खस्ता कचोरी” के नाम से जाना जाता है‚ जहां इसे आलू‚ नारियल और चीनी के मिश्रण से बनाया जाता है तथा इमली‚ पुदीना या धनिया से बनी चटनी के साथ परोसा जाता है। एक सरल प्रकार की कचौरी “नागोरी कचौरी” है‚ इस संस्करण में कोई स्टफिंग नहीं होती‚ बल्कि आटे में स्वाद के लिए नमक मिलाया जाता है। यह कुरकुरी और नमकीन कचौरी कुछ हद तक नवरात्रि के त्योहार के दौरान बनाई जाने वाली पूरियों के समान है। जिसे घी से बने मीठे हलवे के साथ परोसा जाता है। यह सबसे उत्तम मीठे और नमकीन संयोजनों में से एक है। कचौरी एक स्वाद अनेक।